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ग़ज़ल
दिगर-गूँ है जहाँ तारों की गर्दिश तेज़ है साक़ी
दिल-ए-हर-ज़र्रा में ग़ोग़ा-ए-रुस्ता-ख़े़ज़ है साक़ी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
जो पाँच वक़्त मुसल्ले पे क़िबला-रू निकले
उन्हीं बुज़ुर्गों के ज़ेर-ए-बग़ल सुबू निकले
मुबारक अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
कलीम आजिज़
ग़ज़ल
क़फ़स में हूँ गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को
मिरा होना बुरा क्या है नवा-संजान-ए-गुलशन को
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कभी मेरी हर ख़ुशी को मिरे मेहरबाँ ने लूटा
कभी मेरी अंजुमन को मिरे पासबाँ ने लूटा